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३१. ३. २०१४

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जिस आखर से खुले
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जिस आखर से खुले
उसी पर बंद हो गये
सुख के सपने
कुंडलिया के छंद हो गये

चढ़ी भोर के माथे पर
तपती दोपहरी
संन्ध्या के अधरों पर भी
अनबन आ ठहरी
रातों के बिस्तर पर काबिज
द्वंद्व हो गये

सुर हैं उतरे हुये
आपसी संवादों के
गान अनसुने रहे
सुलह की फरियादों के
बोल प्यार के
बिसर चुके अनुबंध हो गये

चाह दौड़ती
बाँधे कई सफर पाँवों में
भाव भटकते रहे
व्यस्तता के गाँवों में
फुरसत के पल
कस्तूरी की गंध हो गये

-कृष्णनंदन मौर्य

इस सप्ताह

गीतों में-

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कृष्णनंदन मौर्य

अंजुमन में-

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बसंत ठाकुर

छंदमुक्त में-

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विभारानी

क्षणिकाओं में-

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रामशिरोमणि पाठक

पुनर्पाठ में-

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अमित माथुर

पिछले सप्ताह
२४ मार्च २०१३ के अंक में

गीतों में-
मरुधर मृदुल

अंजुमन में-
देवी नागरानी

छंदमुक्त में-
अशोक भाटिया

हाइकु में-
ज्योतिर्मयी पंत

पुनर्पाठ में-
अमित अग्रवाल

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी
   
 

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