राजेन्द्र
बहादुर सिंह राजन
जन्म- १० जून १२५४ को फत्तेपुर
में
प्रकाशित कृतियाँ-
भर्तहरि ( खंडकाव्य ), हिमालय की पुकार ( काव्यकृति ), चन्दन
विष ( उपन्यास ), बादल के अलबेले रंग ( बालगीत संग्रह ) सहित
कई कृतियाँ प्रकाशित।
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कुण्डलिया
१
पार-लगैया एक है, उससे ही मन जोड़।
जीवन बंधन के सकल, दरवाजों को तोड़।
दरवाजों को तोड़, शंभु के शरणागत हो।
अहंकार को त्याग, ज्योति हित तन मन रत हो।
'राजन' कहते मर्म, सत्य का सुन लो भैया,
प्रभु के सिवा न और, जगत में पार- लगैया।
२
मेरी क्या सामर्थ्य है, पुण्य करूँ या पाप।
श्रेय भले मिलता मुझे, सब कुछ करते आप।
सब कुछ करते आप, आप ही की सब माया,
जो कुछ भी है पास, आपसे ही सब पाया।
कह 'राजन' कविदास, जटिल है माया तेरी,
शरणागत हूँ नाथ, करो अब रक्षा मेरी।
३
तेरा अपना क्या भला, जिस पर करता दर्प।
अहंकार से क्या बड़ा, कोई दूजा सर्प।
कोई दूजा सर्प, डसे जो तन मन धन को,
जर्जर करता नित्य, जिन्दगी के उपवन को।
'राजन' माया मोह, तमस में नहीं सवेरा,
जब तक मिले न ज्ञान, मिटे क्या मेरा तेरा।
४
बड़ा जटिल है प्रेमपथ, प्रेम खड्ग की धार।
इससे बड़ा न और कुछ, यह जीवन का सार।
यह जीवन का सार, करे तन मन को चंगा,
समदर्शी में नित्य , प्रेम की बहती गंगा।
'राजन' का हिय सिन्धु, सिन्धु में प्रेम सलिल है।
बिना प्रेम के मित्र, जिन्दगी बड़ी जटिल है।
५
यूँ ही आते रहेंगे, नित नूतन तूफ़ान।
इनसे लड़ता रहेगा, फिर भी यह इंसान।
फिर भी यह इंसान, लड़ेगा चट्टानों से।
नहीं डरेगा किन्तु, कभी वह व्यवधानों से।
'राजन ये संघर्ष, हमें जीवन दे जाते।
इनका बड़ा महत्व, नहीं ये यूँ ही आते।
४ नवंबर २०१३ |