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  ११. ७. २०११

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तुम बिन जग

 

तुम बिन जग
है तमस भरा माटी का ढेला

रज अपनी सत्ता पहचाने
तुम से ही है वो ये जाने
अंधकार में दीप जलाकर
जीवन को दे जाते माने
देख तुम्हें
अंतर में, मन का लगता मेला

ज्ञात नहीं कब माटी फिर से
माटी में जाकर रिल जाये
अंश तेरा जो अलग हुआ था
जाने कब तुममें मिल जाये
ज्योति - पुंज
का रूप अनोखा माटी में आ खेला

दुख-सुख का ये कैसा जाला
मनुज फँसा 'औ जीवन हारा
भूख प्यास पीड़ा मलीनता
का नर्तन इस जग में न्यारा
हरे बने रहें
मन – उपवन, माटी ने हँस झेला

- गीता पंडित

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग : दीपिका जोशी

 
 
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