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८. ८. २०११

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दिन की चिड़िया

 

दिन की चिड़िया
कतरव्यौंत में
अपने ही पर कुतर रही है
डैने खोले, काली छाया
धीरे-धीरे उतर रही है

एक-एक कर
झरते जाते हैं सुर्खाबी पंख
नदियों से घोंघे गुहराते हैं
मंदिर से शंख
आँखों के जंगल से कोई
शोभा यात्रा गुजर रही है

बीच-बीच में
दरकी-दरकी सभी उड़ाने हैं
चिड़िया की आँखों मै
चावल के दो दाने हैं
इन दानों पर जाने कब से
दुनिया भर की नजर रही है

बैठी है बिजली के तारों पर
झूले मन में
हम झूलें तो जाने क्या
हो जाये पल-छिन में
इसीलिए यह चिड़िया है
जो बिजली से बेखबर रही है

- दिनेश सिंह

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