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२०. २. २०१२

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कोई एक हवा

सूरज फिर
से हुआ लाल है

कोई एक हवा ही
शायद इस चौराहे रोक गई है

फिर-फिर
फिरे गई हैं आँखें रेत बिछी सी
पलकों से बूँदें अँवेर कर रखी रची सी,
हिलक-हिलक कर रहीं खोजतीं
तट पर जैसे एक समंदर
बरसों से प्यासी थीं
शायद धूप चाटती सोख गई हैं

कोई एक हवा ही
शायद इस चौराहे रोक गई है

हुए पखावज
रहे बुलाते गूँगे जंगल
बज-बजती साँस हुई है राग बिलावल
भूल गया झलमलता सपना
झूले जैसे एक रोशनी
बरसों से बोझिल थी
शायद रात अँधेरा झोंक गई है

कोई एक हवा ही
शायद इस चौराहे रोक गई है !

थप-थप
पाँवों ने थापी है सड़क दूब सी
रंगती गई पुरुरवा दूर को दिशा उर्वशी
माप गई आकाश एषणा जैसे
एक सफेद कबूतर
होड़ बाज़ ही होकर
शायद डैने खोल दबोच गई है !

कोई एक हवा ही
शायद इस चौराहे रोक गई है !

-हरीश भादानी

इस सप्ताह

गीतों में-

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हरीश भादानी

अंजुमन में-

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शहरयार

छंदमुक्त में-

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पंकज त्रिवेदी

गौरवग्रंथ में-

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पार्वती मंगल

पुनर्पाठ में-

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बालकवि बैरागी

पिछले सप्ताह
१३ फरवरी २०१२ के अंक में

गीतों में-

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डॉ. सुश्री शरद सिंह

अंजुमन में-

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गिरिराजशरण अग्रवाल

छंदमुक्त में-

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विजया सती

कवित्त में-

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राजेन्द्र स्वर्णकार

पुनर्पाठ में-

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पं. रामेन्द्र मोहन त्रिपाठी

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग : दीपिका जोशी

 
 
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