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  २१. ५. २०१२

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प्रेमा नदी

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मैं कभी गिरता - सँभलता हूँ
उछलता-डूब जाता हूँ
तुम्हारी मधुबनी यादें लिए
प्रेमा नदी

यह बड़ी जादूभरी, टोने चढ़ी है
फूटती है सब्ज़ धरती से, मगर
नीले गगन के साथ होती है
रगों में दौड़ती है सनसनी बोती हुई
मन को भिगोती है
उमड़ती है अँधेरी आँधियों के साथ
उजली प्यास का मरुथल पिए,
प्रेमा नदी

भोर को सूर्या घड़ी में
खुश्बुओं से मैं पिघलता हूँ
उबालों को हटाते ग्लेशियर लादे हुए
हर वक़्त बहता हूँ
रुपहली रात की चंद्रा-भँवर में घूम जाता हूँ
बहुत खामोश रहता हूँ
मगर वंशी बजाती है मुझे
अपनी छुअन के साथ
हर अहसास को गुंजन किए
प्रेमा नदी

यह सदानीरा पसारे हाथ
मेरे मुक्त आदिम निर्झरों को माँग लेती है
कदंबों तक झुलाती है
निचुड़ती बिजलियाँ देकर
भरे बादल उठाती है
बिछुड़ते दो किनारों को
हरे एकांत का सागर दिए
प्रेमा नदी

- सोम ठाकुर

इस सप्ताह

गीतों में-

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सोम ठाकुर

अंजुमन में-

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हरीश दरवेश

छंदमुक्त में-

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सुमन केसरी

दोहों में-

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भारतेंदु मिश्र

पुनर्पाठ में-

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रूपा धीरू

पिछले सप्ताह
१४ ई २०१२ के अंक में

गीतों में-

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मदन मोहन अरविंद

अंजुमन में-

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मदन मोहन अरविंद

छंदमुक्त में-

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सत्यप्रकाश बाजपेयी

माहिया में-

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डॉ. सरस्वती माथुर

पुनर्पाठ में-

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डॉ. अ.प.जै. अब्दुलकलाम आजाद

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग : दीपिका जोशी

 
   
 
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