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अभिव्यक्ति तुक-कोश

४. २. २०१३

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 जो असंभव था

जो असम्भव था,
उसे सम्भव किया मैंने।
तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन जिया मैंने
1
मैं प्रणय के
आदि-क्षण से देह के बाहर रहा
मौन टूटा छन्द में, जो कुछ कहा गा-कर कहा
शब्द में, निःशब्द को भी गा दिया मैंने
तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन
जिया मैंने
1
प्राण हिम-शीतल
किया, रवि के प्रखर उत्ताप ने
काल के सीमान्त लाँघे, शून्य के आलाप ने
अमृत से दुर्लभ, अतल दृग-जल पिया मैंने
तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन
जिया मैंने
1
मैं गिरा
गिरि-श्रंग से, तो एक निर्झर हो गया
घाटियों में इस तरह उतरा, कि सागर हो गया
संक्रमण-सुख को सनातन कर लिया मैंने
तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन
जिया मैंने
1
--रामस्वरूप सिंदूर

इस सप्ताह

गीतों में-

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रामस्वरूप सिंदूर

अंजुमन में-

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कल्पना रामानी

छंदमुक्त में-

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लक्ष्मीशंकर बाजपेयी

कुंडलिया में-

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कपिल कुमार

पुनर्पाठ में-

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रामकृष्ण द्विवेदी मधुकर

खबरदार कविता में-

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विश्वंभर शुक्ल

पिछले सप्ताह
२८ जनवरी २०१३ के अंक में

गीतों में-
श्याम निर्मम

अंजुमन में-
अशोक रावत

छंदमुक्त में-
परमेश्वर फुँकवाल

लंबी कविता में-
कनक रेखा चौहान

पुनर्पाठ में-
प्रभात कुमार

खबरदार कविता में-
विश्वंभर शुक्ल

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी
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