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२५. २. २०१३

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दूर ही रहो मिट्ठू

आकर्षक, आभामय, बना खरे सोने का
लेकिन मत मोह में बहो मिट्ठू
पिंजरे से दूर ही
रहो मिट्ठू

पिंजरे में झूला है, दाना है-पानी है
आस-पास आठ पहर, राजा है-रानी है
लेकिन सुख-सुविधा के
लालच में पड़े अगर
साँस-साँस जीवन की, गिरवी हो जानी है
अवसर आ जाये तो-स्वाभिमान की खातिर
भूख और प्यास भी सहो मिट्ठू
पिंजरे से दूर ही
रहो मिट्ठू

कोठी में जीने का अलग ढब-सलीका है
सब कुछ मिल सकता है, हाँ! मगर तरीका है
जंगल की षट-ऋतुओं,
मुक्त पवन, खुले गगन,
आम, बेर, महुए के आगे सब फीका है
राम-राम कहने से मुक्ति अगर मिलती है
डालों पर बैठकर कहो मिट्ठू
पिंजरे से दूर ही
रहो मिट्ठू

-मृदुल शर्मा

इस सप्ताह

गीतों में-

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मृदुल शर्मा

अंजुमन में-

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धर्मेन्द्र कुमार सिंह

छंदमुक्त में-

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इंदु जैन

छोटी कविताओं में-

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कृष्ण कन्हैया

पुनर्पाठ में-

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राधेकांत दवे

खबरदार कविता में-

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प्रो. विश्वम्भर शुक्ल

पिछले सप्ताह
१८ फरवरी २०१३ के अंक में

गीतों में-
शशिकांत गीते

अंजुमन में-
कमलेश द्विवेदी

छंदमुक्त में-
वीरेन डंगवाल

क्षणिकाओं में-
डॉ. परमेश्वर गोयल ’काका बिहारी‘

पुनर्पाठ में-
पुष्पा भार्गव

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी
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