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१४. ७. २०१४

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एक समय था

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एक समय था
सच्चाई तुम अंतस में बसती थीं।

मन-मंदिर खंडहर अब
सूना लगता है,
ज़र्रा-ज़र्रा ईंटा-पत्थर
रूना लगता है।

एक समय था
मन में मेरे तुम देवी-सी सजती थीं।

बदल गई हो तुम कितना
कहाँ जानती हो,
मेरे दिल को घर अपना
अब कहाँ मानती हो?

एक समय था
नस-नस में तुम गंगा-सी बहती थीं।

छद्म भेष में चोर-लुटेरे
अब खुले घूमते हैं,
गीता छूकर लोग सफ़ेद
झूठ बोलते हैं।

एक समय था
जब निर्भय तुम झूठ न सहती थीं। 

- अजय तिवारी

इस सप्ताह

गीतों में-

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अजय तिवारी

अंजुमन में-

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किशन साध

छंदमुक्त में-

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अनुपमा त्रिपाठी

क्षणिकाओं में-

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सुधा गुप्ता

पुनर्पाठ में-

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पीयूष दीप राजन

पिछले सप्ताह
७ जुलाई २०१४ के अंक में
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गीतों में-
जगदीश पंकज

अंजुमन में-
मधुप मोहता

छंदमुक्त में-
शिज्जू शकूर

कुंडलिया में-
कैलाश झा किंकर

पुनर्पाठ में-
पवन कुमार शाक्य

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी
   
 

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