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पिघलकर पर्वतों से
मन कभी घर में रहा
हर नया मौसम

  चैन के पल

चैन के पल चाहता है दुख में हर चेहरा समझ
सिर्फ मेरी ही नहीं, सबकी है ये दुनिया, समझ

एक ही परिवार है, संसार कहते हैं जिसे
ग़ैर को अपना समझ, अनजान को अपना समझ

पीडि़तों की भीगती पलकों से मत आँखें चुरा
आँख के गिरते हुए आँसू को भी दरिया समझ

हो न हो, उसको भी है सूरज का जैसे इंतज़ार
जागता रहता है क्यों, यह सुब्ह का तारा समझ

दोस्त, ये पतझर का मौसम, सामयिक है, जाएगा
हर बसंती रुत का अब जा-जा के लौट आना समझ

३ अक्तूबर २०११

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