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आवाज आग भी तो हो सकती है

देखे हैं मैंने
तालियों के जंगल और बियाबान भी।
बहुत खामोश होते हैं तालियों के बियाबान
और बहुत नीचे आ जाया करते हैं
तालियों की गड़गड़ाहट में आसमान।

कठिन कहाँ होता है
बहुत आसान होता है
समझ लेना अर्थ तालियों की
मुखरित या खामोश होती आवाज का।

पर देखा है मैंने एक ऐसा भी हल्का
जहाँ कठिन होता था
आवाज का अर्थ लगाना।

वह हलका था मेरी माँ की हथेलियों का
या उन हथेलियों का
जो आज भी फैलाती हैं रोटियाँ
हथेलियों की थाप से।

कहाँ बेलती थी रोटी माँ
चकला-बेलन पर!
हथेलियों के बीच रख लोई
थपथपाती थी
और रोटी आकार लेती थी
हथेलियों की आवाज के बीच।

बहुत गहरी होती है आवाज थाप की।
कभी कम होती है
कभी ज़्यादा
पर खामोश नहीं होती।
खामोश होती थी तो माँ
या वे
जो फैलाती हैं आज भी रोटियाँ
हथेलियों की थाप से।

निगाह जब, बस रोटी पर हो
तो कहाँ समझ पाता है कोई अर्थ
थाप का
कम या ज्यादा आवाज का।
उपेक्षित रह जाती है आवाज
जैसे उपेक्षित रह जाती थी माँ
या वे सब
जो आज भी फैलाती हैं रोटियाँ
हथेलियों की थाप से।

रहस्य तो यह भी है
कि जब आती है हथेलियों में
लोई आटे की
तो पाती है आवाज आकार लेती
पर नहीं पाती आवाज
वे आँखें
जो फैलती हैं साथ-साथ,
और रचती हैं एक लय
हथेलियों और तवे में,
तवे और आग में,
और फिर आग और तवे में
तवे और थाली में।

क्यों लगता है
आवाज आग भी तो हो सकती है
भले ही वह
चूल्हे ही की क्यों न हो, खामोश ।

२६ नवंबर २०१२

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