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अनुभूति में दिविक रमेश की रचनाएँ-

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उनका दर्द मेरी जुबान
चेतावनी
लाठी

वह किस्सा ही क्या जो चलता न रहे।

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उत्तर उत्तर प्रश्न प्रश्न है
किसको भैया कब है भाया
छोटी छोटी बातों पर
दादा की मूँछों से
हवा हिलाती

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रात में भी
आए भी तो
हाक़िम हैं

:छंदमुक्त में-
उम्मीद
एक बची हुई खुशी
बहुत कुछ है अभी
रहस्य अपना भी खुलता है
सबक
जीवन

क्षणिकाओं में-
हस्तक्षेप

संकलन में-
जग का मेला- चीं चीं चूं चूं

 

वह किस्सा ही क्या जो चलता न रहे

किस्सा यूँ है
कि गवाह पाण्डेय -
और चोंक पाण्डेयपुर का
रास्ता-सारनाथ
और धूल से अंटा, मुश्किल से पहचान में आता ’आटो’
और हड्डियों को सम्भालते सम्भालते आटो में,
मैं और पाण्डेय।

लाज से या कहूँ शर्म से गड़ी जाती सड़क।
जगह जगह
फटी साड़ी से गड्ढे।
ठरिए भी
तनिक सब्र भी कीजिए जी
किस्सा भी आएगा
बगल ही में तो है।

पहले सुन तो लीजिए पेट की भी
बिखरा जा रहा है जिसका सबकुछ
इधर-उधर।
ले रहा है टक्कर हमारे हौसलों से पूरी।
हिचकोले थे कि नहीं ले पा रहे थे साँस तक।
दम बहुत था पर ’आटो’ में
जबकि चालक ज़रूर बिदक लेता था जब-तब।
और ढाँप लेते थे हम अपनी अपनी जेबें।

तो किस्सा यूँ है है
कि गवाह है पाण्डेय और चौक पाण्डेयपुर का
कि हम दोनों
सारनाथ से ज़्यादा राह पर थे लमही के
और जा रहे थे मिलने प्रेमचन्द के पात्रों से।

खैर
पहुंचे तो अच्छा लगा सबकुछ भूल कर
सामने था प्रेमचन्द-द्वार लमही का
और थे दोनों ओर
खड़े, कुछ बैठे भी
पात्र प्रेमचन्द के। कुछ हाँफते पर उत्सुक।

थे
कि वे भी आए थे वहाँ धूल-धक्क़ड़ खाते
हमारी ही तरह ’ओटो’ पर , बॆलगाड़ी तो कहीं दिख नहीं रही थी।
पेट तो इनके भी रहे होंगे हमारी ही तरह
और सड़कें भी शर्म की मारीं।

लगा
कि न वे पहचान पा रहे थे हमें
और न हम ही उन्हें। शायद।

सिर चढ़ कर बोल रहा था धूल का महत्त्व दोनों ओर ही।
कितना एकाकार कर सकती है धूल भी
अगर आ जाए अपने पर।

जानता हूँ जानता हूँ
टिप्पणी की ज़रूरत नहीं थी न
पर कोई विदेशी तो नहीं हॆं न
ठेठ यहीं के हॆं, इसी देश के
सो टिप्पणी तो ससुर मिली ही होगी न जन्मघुट्टी में
धरी रहती है जो ज़बान पर।
लो फिर कर गए टिप्पणी।

क्या सचमुच नहीं चाहता मन अजी इतराने का देश पर !

तो किस्सा यूँ है
कि धूल ओढ़े
धूल बिछाए
धूल खाए
और धूल ही पेश किए एक दूसरे को
हम
अपनापा खोकर भी बहुत अपने दिख रहे थे एक दूसरे को।
जितने ललकाए हम थे उतने ही तो दिख रहे थे पात्र प्रेमचन्द के भी।

लगता था
जाने कब तक की अटकी पड़ी प्रतीक्षा आँखों में
टप टप
टपक पड़ी थी।

संधाए आकाश में कोई देवता नहीं था
बस जाने कहाँ से आकर
त्रिलोचन मंद मंद मुस्कुरा रहे थे
और बगल में निराला आज़ादी का गीत गुनगुना रहे थे
जबकि नागार्जुन ढपली बजा रहे थे
और शमशेर सम्भाल-सम्भाल कर फूल बरसा रहे थे।

पता नहीं पाण्डेय का ध्यान तब किस ओर था
पर इतना तय था
कि वह उस दृश्य से महरूम रह गया था।

दूर दूर तक कहीं कोई शिकायत नहीं थी।
धुल चुकी थीं प्रेमचन्द के पात्रों की आँखें।
सुरसुरा कर देह
बैलों तक ने झाड़ ली थी धूल-मिट्टी जमी कब की।
सुध तो ली थी न किसी ने उनकी।

कॆसा लगा होगा उन्हें
कैसा ?

सोचता हूँ
जैसे बहुत दिनों के बाद
गाँव लॊटा हो बेटा
बहुत दूर शहर से
घर बना चुका है जो वहीं। हो चुका है वहीं का उसका पता।

किस्सा यूँ है
कि अब आगे और कुछ नहीं--
होता भी क्या -मामूली आदमियों का मामूली किस्सा !
कि मुझे याद हो आया था
जर्मनी का न्यूबरनडन्बर्ग शहर
कि शहर के स्टेशन के बाहर का चौराहा
कि चौराहे की सड़क के एक ओर खड़ा लेखक
और दूसरी ओर पिद्दी बना राजकुमार
और उसको डाँटता हुआ एक नन्हा बालक तना
और उसकी बेकरी- माँ। यानि पात्र लेखक के।

बस न वहाँ अँटा था लेखक धूल से
और न ही पात्र उसके।
और देखिए न
दर्शक भी नहीं।

तो किस्सा यूँ है
कि वह किस्सा ही क्या
जो चलता न रहे।

तो चलते हैं।

२२ अगस्त २०११

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