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अनुभूति में तरुण भटनागर
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अकेले का जंगल

एक बहुत बड़े मैदान के बीच,
खड़ा है,
एक अकेला पेड़।
उस पेड़ की कोई बस्ती नहीं।
उस पेड़ का कोई जंगल नहीं।
पर,
वह यूँ ही अकेला नहीं उगा।
जब वह बीज था,
वह जान गया था,
कि जंगल कैसे उगते हैं?
पहले सिर्फ एक पेड़,
फिर उस पेड़ के कई बीज,
फिर उन बीजों से कई सारे पौधे,
फिर पौधों से पेड़,
और फिर,
फिर से यही क्रम,
कई बार,
बार-बार,
और अंत में एक जंगल।
वह जान चुका है,
कि एक जंगल वह भी शुरू कर सकता है,
और यूँ,
वह जंगल में नहीं उगा।
जंगल का रहस्य जानकर,
वह जंगल में नहीं उग सकता।
अगर उगता,
तो वह जंगल का हिस्सा होता,
उसका कभी कोई जंगल नहीं होता।

९ जनवरी २००३

 

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