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अनुभूति में तरुण भटनागर
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  बचपन का घर

जब बचपन के घर से,
माता-पिता के घर से, बाहर चला था,
तब खयाल नहीं आया,
कि यह यात्रा एक और घर के लिए है,
जो निर्लज्जता के साथ छीन लेगा,
मुझसे मेरे बचपन का घर।
यूँ दे जाएगा एक टीस,
जिसे लाखों लोग महसूस करते हैं,
क्योंकि दुनियादारी होते हुए,
रोज़ छूट रहे हैं,
लाखों लोगों के,
लाखों बचपन के घर।
कितना अजीब है,
जो हम खो देते हैं उम्र की ढलान पर,
वह फिर कभी नहीं लौटता,
जैसे देह से प्राण निकल जाने के बाद फिर कुछ नहीं हो पाता,
ठीक वैसे ही गुम जाता है बचपन का घर।
माता-पिता, भाई-बहन,
प्यार, झगड़ा, ज़िद, दुलार, सुख
सब चले जाते हैं,
किसी ऐसे देश में,
जहाँ नहीं जाया जा सकता है,
जीवन की हर संभव कोशिश के बाद भी,
वहाँ कोई नहीं पहुँच सकता।
ना तो चीज़ों को काटा-छाँटा जा सकता है
और ना गुमी चीज़ों को जोड़ा जा सकता है,
पूरा दम लगाकर भी,
फिर से नहीं बन सकता है, बचपन का घर।
हम सब,
माता-पिता, भाई-बहन,
आज भी कई बार इकठ्ठा होते हैं,
बचपन के घर में,
पर तब वह घर एक नया घर होता है,
वह बचपन का घर नहीं हो पाता है।

९ जून २००५
 

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