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अनुभूति में प्रो. सुरेश ऋतुपर्ण की
रचनाएँ-

नयी कविताओं में-
अपने को मिटाना सीखो
एक दिन

ये मेरे कामकाजी शब्द

कविताओं में-
उभरूँगा फिर
एक धुन की तलाश
गुज़रे कल के बच्चे
घर लौट रहे बच्चे
चलती है हवा
जापान में पतझर
झरती पत्तियों ने
दिन दिन और दिन

ध्वन्यालेख तन्मयता के
निराला को याद करते हुए
मुक्ति
मौसम
लक्ष्य संधान
वसंत से वसंत
सार्थक है भटकाव

सुनो सुनो

  एक दिन

बँधी मुट्ठी से
रेत की तरह
झर जाएँगे हम एक दिन

रूपहले कणों में झिलमिलाते
याद आएँगे बहुत
मगर हम एक दिन

उड़ेंगे ऊपर आसमान में
पतंग की तरह
रंगों के पूरे उठान के साथ
उम्र की सादी डोर पर
वक़्त का तेज़ माँझा
चलाएगा अपना पेच
हिचकोले खाते गिर जाएँगे हम एक दिन

हवाओं की लहरों पर
थिरकती कंदील की है क्या बिसात
बरसा कर झिलमिलाते रंगों की लड़ियाँ
बुझ जाएँगे हम एक दिन

घाटी में खिलखिलाते
दौड़ लगाएँगे बच्चों की तरह
औऱ बिखेर कर खुशबू
फूलों की तरह
झर जाएँगे हम एक दिन
धरती की छाती फोड़कर
उगेंगे फिर एक दिन
पकेंगे धूप की आग पर
हँसिए की तेज़ धार से
झूमते-झूमते कटेंगे हम एक दिन

सूखेंगे, पिसेंगे, गुँथेंगे
चूड़ियों भरे हाथों से
सिकेंगे उपलों की आग पर
और बुझाएँगे पेट की आग हम एक दिन

बरसेंगे उधर हिमालय की चोटियों पर
बर्फ़ बन जम जाएँगे
सूरज की किरणें भेदेंगी मर्म भीतर तक
आँख से बहते आँसू की तरह
पिघल जाएँगे हम एक दिन

आकाश की ऊँचाई नापते
परिंदे के टूटे पंख की तरह
अपनी नश्वरता में तिरते
अमर हो जाएँगे हम एक दिन।

बँधी मुट्ठी से
रेत की तरह
झर जाएँगे हम एक दिन।

२४ अगस्त २००९

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