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उलझन
ढाल
धूप का ढलता साया
फिर बदल गया

छंदमुक्त में-
और बच्चे खेलते रहे
क्या उसे हक़ था
खारदार झाड़ियाँ
दो खुली आँखें
ये कैसा ख़ौफ़ है

 

फिर बदल गया...

कर गया विश्वासघात
झोंका आँधी का
हत्यारा निर्दयी
बदल गया घोंसला
क्षीण क्षीण, झीर झीर
क्षितिज भयंकर
सूरज अँधियारा
ढूँढ रहा किरणो को
ये कैसा परिवर्तन...!

विष उगलती हवाएँ
मृदुल समीर डरी डरी
सप्तऋषि मंडल भी
भूल गया राह अपनी
दृष्टिकोण ही
बदल गया।

हो गया अंतिम संस्कार
मिल गई मुक्ति
घोंसला
फिर बदल गया।

१८ अक्तूबर २०१० 

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