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अनुभूति में मदन वात्स्यायन की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
ऋतु संहार
दो बिहाग
नख-शिख
शुक्रतारा

 

शुक्रतारा

नए दूल्हे सा सूरज नववधू सा पीछे पीछे यह
शुक्रतारा जा रहा है

बदल रहा है रंग आसमां का क्षण क्षण
बदल बदल यह जगमगा रहा है
इंजन के हेडलाइट सा शोरगुल के बीच
सूरज निकल गया
गार्ड की रोशनी सा पीछे पीछे गुमसुम अब
शुक्रतारा जा रहा है।

हमारी बस्ती में दिये से बल्ब से पैट्रोमैक्स सा चाँद
चारों ओर बल उठे तारे
दूरी में बैलगाड़ी की लालटेन सा यह
शुक्रतारा जा रहा है।

शहर को अँधेरा कर हवाईजहाज से
मिनिस्टर चले गए
जनता से एम एल ए सा पीछे पीछे यह
शुक्रतारा जा रहा है।

कि भटक न जाएँ राहगीरों की खातिर
शाम को जला के मशाल अब शुक्रतारा जा रहा है।

तपता सूर्य गया चिल्लाते राह दिखाते कौड़ियों से
सितारे दौड़ आ भरे
अपने सब कुछ की रमाने धूनी अब क्रांति दृष्टा
शुक्रतारा जा रहा है।

है नेहरू एक वतन का प्यारा सताए हुओं को है
जिस पर भरोसा।
हमारा आँखों में अब भी चमक है कि बीच आसमाँ में
वह सितारा जगमगा रहा है।

बीबी सजा दियों का थाल लाओ ज्योति भर लो।
कि हमारे आसमान को सूना कर के रक्ष के देवता यह
शुक्रतारा जा रहा है।

२९ अगस्त २०११

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