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अनुभूति में जगत प्रकाश चतुर्वेदी की रचनाएँ-

गीतों में-
आएगा कुछ बादल जैसा
जलती हुई कोई नदी
वृक्ष हैं किनारों के
सूर्य की पाती

  जलती हुई कोई नदी

छटपटाता है शिराओं में समुंदर
डबडबाती आँख में
जलती हुई कोई नदी!

चंद्रमा की छाँव में भी धूप फैली
चाँदनी के द्वार से
मैं लापता हूँ
ज्यों भटकता
डाकिए के हाथ में खत
इस शहर का अधलिखा
ऐसा पता हूँ
वृक्ष भागे जा रहे पीछे सफ़र में
सामने जैसे खड़ी
कोई अदेखी त्रासदी!

एक गहरे गर्त-सा कुछ सामने है
लग रहा, उसमें
समाता जा रहा हूँ
है गनीमत, गीत थामे हाथ मेरा

डूबता हूँ किंतु
गाता जा रहा हूँ
एक सारस पंक में जैसे फँसा है
डूबती ही जा रही है
उम्र की प्यासी सदी!

हों निठुर ग्रह, क्रूर हों नक्षत्र सारे
पर मयूरों का
नहीं नर्तन थमेगा
जिन घनों को है
बरसने की न आदत
होठ पर उनके
यही गर्जन रहेगा
मन पलाशों-सा हुआ
खुद ही जलेगा
नेकियों के घर पला जो
क्या करेगा वह बदी!

१६ नवंबर २००९

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