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अनुभूति में कुमार रवींद्र की रचनाएँ

गौरवग्रंथ में-
कच देवयानी (लंबी कविता)

गीतों में
अपराधी देव हुए
इसी गली के आखिर में
और दिन भर...
खोज खोज हारे हम

गीत तुम्हारा
ज़रा सुनो तो
पीपल का पात हिला
बहुत पहले
मेघ सेज पर
वानप्रस्थी ये हवाएँ
शपथ तुम्हारी
संतूर बजा
सुनो सागर
हम नए हैं

हाँ सुकन्या

  कच-देवयानी
(लंबी कविता)

समूहगान - एक

स्निग्ध रात्रि !
दुग्ध-धवल शशि-ज्योत्स्ना
दिवास्वप्न जैसी चमकीली लजीली-सी
विकसित थी
पुष्पित थी
नभ पर
धरा पर
असुरगुरु-तनया देवयानी के मन में -
सरसिज-दल नयनों में
पुत्तलिकाएँ नाच रहीं
मदनातुर भावों के अपलक संकेत पर -
प्राण में सजीव स्वप्न
रूप का विहान नवल -
अधरों में, अंगों में
इच्छा का नया ज्वार।
सपनों की आभा में
तिरती किशोरिका
मनसिज पंचपुष्पों के अनंत पाश बुनती थी
यौवन के
मलयाकुल आमन्त्रण सुनती थी
अग-जग को बंदी बनाती चक्षु-क्षेप से।
अंतर में
मनसिज की चेतना नवीन यह
प्रणयाकुल सुरभित थी
विशद थी
अगाध थी
असह्य थी
असाध्य थी -
स्वप्नशील यौवन में
सुरुगुरु बृहस्पति-सुत कच का आधार पा।
रग-रग में रूपवान कलियाँ थीं खिलतीं
किसलय स्पर्श से उमगते रोम-रोम थे -
सिमटी थी चेतना अतीव प्रणय -पीड़ा में।

क्षितिजों के पार कहीं
स्वप्न-देवलोक था -
वह अनंग अन्तरिक्ष
परसाकुल गंधलोक
प्रिय के सँग जिसमें वह नित्य वास करती थी
प्रीति की अतृप्ति का अनंत भास करती थी
जाग्रति में सपनों की वल्लरी सजाती थी
सपनों में जाग्रति का अनुभव पा जाती थी।


आये बृहस्पति-सुत
जिस दिन बन स्वप्नपूर्ति
यौवन के सुरभिवान स्वप्नशील चेतन के
अब भी था याद उसे वह क्षण अनुरागभरा।
सपनों की दीप्ति-सा
सुरक्षित था आज भी
वह अनंग रूप प्रमथ-काव्यमय
जिसने था दिया उसे बोध नया -
प्रीति का।
और जो अंतर में
प्राण में समाया था
बनकर नवयौवन उद्बोधन उल्लासभरा।
स्वर्णमय विहान-सा अलौकिक वह रूप था।
सूर्यकान्ति छवि थी
निर्दोष मुखमंडल की -
पर्वत के ढालों-सा विस्तृत ललाट था -
स्वप्नवान दृष्टि थी -
विशाल अक्ष सरसिज-से -
प्राणवान वाणी थी
प्रीतिरस-सुधा-सिंचित -
घन-विहीन शरद-काल नभ-सा
विशाल वक्ष -
सागर की लहरों-से प्रलंब पुष्ट बाहु थे।
अंग-अंग ऊर्जा का मानो साकार रूप -
ब्रह्मतेज-सौरभ से
रग-रग थी सुरभिवान।
मनसिज ही जैसे हो जनमा फिर एक बार।
पहली ही दृष्टि में
समाया था रूप वह
मन में देवयानी के।

*

समूहगान - दो

सृष्टि के प्रभात के
अपूर्व उस काल में
देवों और असुरों मध्य अनथक संघर्ष था।
दानव थे अधिक बली -
मायावी-बल भी था उन्हें मिला -
भृगु-सुत शुक्राचार्य का गुरुत्व भी।
देवगुरु बृहस्पति से
असुरों के कुलगुरु थे श्रेष्ठ और अधिक कुशल -
औषधि के मंत्रों के प्रबुद्ध उद्गाता थे
संजीवनी विद्या का भेद उन्हें ज्ञात था।
देवासुर युद्धों में
जब-जब भी असुरों की प्राणहानि होती थी
होते थे जीवित फिर -
औषधि-विज्ञान का अलौकिक था चमत्कार।
होते थे क्षीण देव दिन-प्रतिदिन
दानव थे सतत प्रबल।
देवगुरु बृहस्पति ने सोची तब एक युक्ति -
भेजा निज आत्मज को ऊशना की सेवा में
संजीवनी औषधि का ज्ञान प्राप्त करने को।
कच थे अमिताभ-प्राण
अतिशय ही विमल-अमल।
वेद की ऋचाएँ
उन्हें सहज कंठस्थ थीं -
अनुशासित प्राणों में
बुद्धि-बल-ऊर्जा का अद्भुत संयोग था।
शुक्र ने सराहा था
अपने शुभकर्मों को
पाकर मेधावी शिष्य
ऐसा ओजस्वी औ' अनंत विश्वास भरा।
असुरों ने कई बार
बल से और छल से भी
हत्या की कच की।
ऊशना ने बार-बार जीवित किया उनको
अनुपमेय अपनी संजीवनी विद्या से।
और फिर अंत में
पाकर उनको सुपात्र
संजीवन-औषधि का भेद था प्रदान किया।
कच को अब जाना था गेह निज।

*
समूहगान - तीन

देवयानी व्यथित थी
अव्यवस्थित थी
अतृप्त थी -
मनसिज का कोलाहल
उसकी रग-रग में व्याप्त था -
कच को समर्पित थी उसकी हर रक्त-शिरा।
कितने ही इंगित से
कितनी ही नयनों की बंकिम चेष्टाओं से
उसने थे बार-बार कच को संकेत दिये
अनगिनत प्रयास किये
भाव निज जताने को।
किन्तु कच रहे अंधे
उसके अनुरागी इच्छा के ज्वार से।

जाने की पूर्व-साँझ
आये थे मिलने कच।

शुक्रसुता व्याकुल थी
अपूर्ण निज स्वप्न से -
अपूर्व दिवास्वप्न से
देखा था उसने जो यौवन के भोर में।
आतुर थी बनने को वह
मनसिज के आँगन की मनचली विहारिणी।
रग-रग में, प्राण में
अपार्थिव मिलन-इच्छा थी
अंतर में मीनकेतु फहराता था अनन्य
बार-बार अंगों में आलिंगन डोलता।

कच थे तटस्थ
और आगत भविष्य की आसथाथ से प्रभावान।
देख नहीं पाए वे मुख पर देवयानी के
आंदोलित काम-ज्वार।
बोले वे सहज दुलार-भरे स्वर में थे -
"भगिनी, मैं पूर्णकाम होकर अब जाता गेह -
जीवन भर सफल रहूँ
इसका आशीष दो।
भूल मैं सकूँगा नहीं
गुरु का वह स्नेह सहज
पुत्रतुल्य मुझको जो अयाचित था प्राप्त हुआ
और फिर तुम्हारा भी नेहभरा संग यहाँ
मुझको रहेगा याद
जन्मों की निधि-सा।
सुधियों की सुरभि से अनन्य मैं भरूँगा सदा।"

मन में देवयानी के अनन्य भाव डोले थे-
उर्मिल-से प्राण में
अपार-बाहु अनुरागी लक्ष-लक्ष इच्छाएँ
विकार बन धाईं थीं।
साहस हुआ था नहीं किन्तु उन्हें कहने का।
मौन आतंकित ठगी-सी रह गयी थी वह
पाकर अचानक ही
दुस्सह भविष्य को।

*
दृश्य

अर्द्धप्रहर रात्रि थी -
अलौकिक संभोग-काल।
नभ में अगणित प्रकाश-बालाएँ
घेरें थीं चन्द्र-बिम्ब -
पुष्पित थी चाँदनी।
नभगंगा कुसुमित थी
उस सुहाग-काल के अपूर्व रजत-पर्व में।
पारे की धारा-सी
ज्योति का प्रसार था सभी ओर -
अनुरागभरी बेला वह।
ऐसे ही समय में विरहणी सकुचाती है
कामिनी प्रोषितपतिका
अनंग-पीड़ से भ्रमाती है।
ऐसे ही समय में देवयानी
पुष्पों के साज सजी
चली मिलनातुर हो
प्रणयिनी बन
विवश-सी
खिंची-सी
मनसिज प्रत्यंचा-सी।
कच की कुटीर में प्रवेश किया उसने -
वश में नहीं था मन
मन्मथ आवेश प्रबल।
काम की पताका थी वह मानो साकार।
भूल गयी थी वह भान
धर्मका, कर्म का अथवा अपकीर्ति का।

कुटी-मध्य
ज्योतिवान दीप के प्रकाश में
देखा था उसने
स्वप्नशील प्रियतम को।
होठों में बरबस
प्रणय-ज्वार उमग आया था
बाँहों में करका की वेदना समाई थी
अंतर में व्याकुल रसराज उमड़ छाया था।
तीव्र हुई श्वास-गति -
अनंग की पिपासा से कंठ सूख आया
और...

उसी समय सहसा ही
कच का स्वप्न-भंग हुआ।
सोने के सरसिज-से
खुले वे विशाल नेत्र -
नीलम के युगल अक्ष
हुए फिर चलायमान
और फिर ससन्भ्रमित उठ बैठे थे वे।
सहसा विश्वास नहीं हो पाया उनको -
देख रहे स्वप्न वे
अथवा यह सत्य था।

पूर्णतया चेतन हो बोले वे -
"कारण क्या, गुरुपुत्री
असमय इस आने का ?
सब कुछ कुशल तो है ?"
देखि फिर उसकी वह
मदनातुर मुखमुद्रा -
प्रणयाकुल साँसों का
मन्मथ वह विकल ज्वार -
नयनों में
चपला का प्राणमथी आकर्षण
उगते उरोजों में मनसिज का आमन्त्रण।
सहम गये सहसा वे
देख यह विकार-दृश्य।

बोली थी देवयानी
साहस कर उसी समय
मंत्रमुग्ध व्यालिन-सी काया मरोड़ निज -
"कच, मेरे अंतर के देव !
हे अलौकिक स्वप्न !
मेरे नवयौवन के व्याकुल अनुवाद, सखे !
तुमने जो जगाई है मुझमें यह काम-वह्नि
प्रियतम, उसे शांत करो।
सहन नहीं होती है
मीठी यह जलन मुझे -
आओ, इन अंगों में भर लें हम प्रमथ-ज्वार
और फिर सजाएँ
यौवन की सुख-सज्जा।"

कच थे स्तंभित
अति विस्मित भी
देख देवयानी का रूप वह।
होकर फिर स्नेह-आर्द्र
करुणा-आर्द्र बोले वे -
"भगिनी देवयानी, तुम जाग्रत सचेत हो ?
सोचो, तुम कहतीं क्या ?
अनुचित प्रस्ताव यह।
हम तो हैं सखा-बन्धु
प्रणयी-प्रणयिनी नहीं
तुमको स्वीकारना न संभव इस रूप में।"

बोली देवयानी थी
व्याकुल प्रणयिनी-सी -
"नहीं,नहीं, भगिनी नहीं
मैं तो हूँ प्रेयसी !
निष्ठुर मत बनो, प्रेय, इस तरह
मुझको स्वीकार करो।
देखो, यह भू-नभ का चाँदी का धवल राज्य
देखो, यह रजत-रश्मि -
सुरभित अनुराग-काल
देखो, यह मनसिज की जाग्रत विभावरी
देखो यह मलयालय-चर्चित समीर-पुंज
बार-बार हमको बुला रहे
किसलिए ?
कच, क्या निरर्थक हैं ये सारे आमन्त्रण ?
होंगे साकार नहीं
मेरे क्या स्वप्न, सखे ?
प्राण की पिपासा क्या
निष्फल ही रहेगी यों ?
सुने नहीं तुमने क्या
निबिड़ निशीथ में
तम के आलिंगन में
प्राणों के मौन में
यौवन के आकर्षक
मिलनातुर आमन्त्रण ?
कितनी ही बार मुझे ऋतु ने तड़पाया है
कितनी ही बार किसी स्वप्न ने सताया है
मोहक अनंग रूप-वैभव से अपने।
बोले, क्या सत्य नहीं
मेरे वे पहले स्वप्न
जिनमें अनेक बार मैं हूँ समाई
इन प्रलम्ब पुष्ट बाँहों में तुम्हारी ?
मिथ्या क्या है मेरे अंतर का देवता
जिसने आकर्षण से
मुझको है बाँधा नित संग से तुम्हारे ?
बोलो, क्यों संभव नहीं
हम दोनों का मिलकर पूर्णकाम होना ?
क्यों तुमको मेरा यह अनथक अनुरागभरा
यौवन का स्वस्थ आलिंगन स्वीकार नहीं ?"

कच थे प्रकृतिस्थ
पूर्ण वीतराग और सजग
बोले - देवयानी, तुम भगिनी हो मेरी।
माना अयोनिज नहीं
किन्तु हम दोनों में
महाभाग ऊशना का तेजोमय अंश है।
याद नहीं तुमको क्या
कुछ ही तो दिनों पूर्व की घटना -
जब असुरों ने मार मुझे
मेरे अस्थिचूर्ण को
मदिरा में डालकर गुरु को पिलाया था
और फिर पाकर मुझे अपनी ही काया में
गुरु ने सिखाई थी मुझको
अद्भुत संजीवनी क्रियाएँ
जिनसे मैं बाहर आ गुरुवर की देह से
उनकी मृत काया को जीवित था कर सका।
मेरा वह जन्म नया
था उनकी देह से
आत्मज हुआ मैं इस प्रकार ऊशना का ही
और तुम हुईं भगिनी
इस नाते देह से।
बोलो, फिर अनाचार होगा क्या यह नहीं
यदि मैं तुम्हारा यह समर्पण स्वीकार करूँ ?"

तर्क था अकाट्य
और हतप्रभ थी शुक्रसुता
फिर भी स्वीकार नहीं कर पाता अंतर था।
उर था प्रेमांध -विकल
तर्क नही सुनता था -
प्राणों में केवल एक अग्नि-ज्वार बहता था -
बुद्धि थी नपुंसक
और रक्त गतिमान था।
प्रलय के समान थी
अविरल वह चेतना
सुख के तिरस्कार की
कुंठित इच्छाओं के आहत अभिमान की -
आँखों में रोष
और साँसों में विष-प्रवाह होता था -
पद्म-नयन पलकों में
फड़क रहा घोर क्रोध -
लगती थी वह जाग्रत प्रतिमा प्रतिकार की।

बोली थी
विषधर-सी वाणी में -
कच, तुम नपुंसक हो
क्लीव हो -कापुरुष !
तुममें सामर्थ्य नहीं
तोड़ सको नियमों के बंधन को।
लेते हो तर्क का सहारा
तुम निर्बल हो
कायर हो !
धर्म-कर्म-मर्यादा -
ये सारी संज्ञाएँ अर्थहीन
सुख में यदि बाधक हों।...
मानव के सुख से कुछ बड़ा नहीं ...
सामाजिक बंधन हैं मर्यादा
अलग-अलग समयों के -
त्याज्य हैं इसी से ये
यदि हों ये बाधक हम मनुजों के सुख में।

सोचो तो एक बार मुक्त हो
तर्क और नियमों के बंधन से
अगणित दिव्य सपनों के मधुरिम आलोक मध्य
अप्रतिम इस यौवन के सुखभरे प्रभात में
मैंने है तुमको ही प्रियतम स्वीकार किया -
प्रीति की सुधा-सिंचित
अपनी इस देह का तुमको वरदान दिया -
रूप के अछूते
इस स्वर्णकांति सौरभ का तुमको है दान दिया।
तुम सीमित-दृष्टि
रहे क्रूर और निर्दयी -
मुझको यों लांछित अपमानित किया है तुमने
जैसे मैं हूँ कोई देवों की दासी या अप्सरी
या हूँ अस्पृश्य नीच अन्त्यज-सी।
मेरे शुद्ध प्रेम का
तुमने प्रतिदान दिया केवल तिरस्कार से।
मेरी इस आचमनी देह का सुख तुमको स्वीकार नहीं ...।"

कच थे अवाक्
शांत सुनते थे वह प्रलाप
क्रुद्ध देवयानी का -
संभव नहीं था उसे रोकना।

आगे फिर रोषातुर
बोली देवयानी थी -
"तुमने मृदुभावों की की है निर्मम हत्या -
शुद्ध सरल चित्त को मेरे अनुराग-भरे
तुमने बस दी है
मर्मान्तक अपलक पीड़ा -
नैतिक निज नियमों के वशीभूत होकर
तुमने जो नारी की की है अवमानना -
उससे तुम रहोगे सदा
क्षुद्र और सीमित बुद्धि -
सीखी है तुमने जो
मृत-संजीवनी विद्या अलौकिक यह
उसक उपयोग नहीं कर पाओ
अपमानित नारी का शाप तुम्हें।"

कच थे यों वीतराग
किन्तु हुए व्याकुल वे
सुनकर अन्यायपूर्ण शाप देवयानी का।
मन में फिर किंचित रोष-
खिन्न भाव उपजा
किन्तु फिर तुरंत ही
हुए शुद्ध सात्त्विक वे -
अति ही था क्षीण-क्षणिक उस विकार का प्रभाव
उनके धीर अंतर पर।
उनके शांत मन में फिर
करुणा का अलौकिक भाव जागा -
बोले वे सहज चित्त -
देवयानी, यह तुमने क्या किया...
कितना अनर्थपूर्ण है यह कार्य
सोचा है तुमने ?
अपने मनोरथ में तुम इतनी अंध हुईं।
भगिनी !
भूल गयीं ऊशना का सात्त्विक संकल्प तुम -
देख नहीं पायीं तुम
अविचल विस्तार वह
जिसके हम सभी प्राण केवल क्षुद्र अंग हैं
फिर भी विस्तारवान उसके ही साथ-साथ -
व्यक्ति में समष्टि है समाहित कुछ इस तरह -
शाप यह तुम्हारा वरदान बने विश्व का -
मेरी सीमाएँ हों समर्थता अनंत की।
ज्ञान तो अलौकिक है -
अप्रतिम सामर्थ्यवान।
शाश्वत संजीवनी विद्या यह मेरी है चेरि नहीं
इसका उपयोग मैं न कर पाऊँ
तो भी क्या ?
इसका उपयोग अब करेंगे वे समर्थ जन
जिनको सिखाऊंगा विद्या यह अमृतवान
इससे तुम्हारा शाप मुझको न रोकता।
मेरी जो सीमा है
वही बने उनकी सामर्थ्य
और शक्ति प्रबल।

किन्तु जो किया अनर्थ
तुमने अनजाने में अपने प्रति
उसका परिहार नहीं संभव है दीखता।
जीवन की स्वाभाविक धारा का छोड़ मार्ग
तुमने नैसर्गिक पथ
सपनों का त्यागा है -
प्रीति के प्राकृतिक नियमों की अवज्ञा कर
उनको अपने विरुद्ध तुमने है कर लिया।
भूल कर सहज स्वभाव निज आत्मा का
तुमने ...
शारीरिक सुख श्रेयस्कर माना है -
भोगभरी दृष्टि से जीवन की व्याख्या कर
राजसिक वृत्ति को तुमने अपनाया है -
ब्राह्मण के योग्य नहीं दृष्टि यह -
क्षत्रिय ही प्राप्त तुम्हें होगा पति रूप में -
दुविधा में रहोगी सदा तुम-
देखता भविष्य मैं तुम्हारा अंधकारमय -
जीवन की झंझाएँ तुमको भटकायेंगी -
द्वन्द्वों से पीड़ित तुम
शांति नहीं पाओगी -
भोगमयी दृष्टि ही तुम्हारी है सीमा
जिसमें तुम बंधी रहोगी सदा-सर्वदा -
अपने ही विरुद्ध है तुम्हारा विद्रोह यह।"

*
समवेत समूहगान

कच के ये शब्द थे
आगामी के ही तो पूर्वाभास।
आगे देवयानी के झंझाकुल जीवन था -
अभिशापित प्राणों की अशांतिपूर्ण भटकन-
आत्मा में उसके नित हाहाकार विषदंशन।
खंडित व्यक्तित्त्व का
विखंडित भविष्य था
और था जीवन भर ईर्ष्या का महादाह।

९ मई २०११

( कविता-संग्रह : 'लौटा दो पगडंडियाँ' -१९९० से )

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