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अनुभूति में मदन मोहन अरविंद की रचनाएँ-

नई रचनाओं में-
चुप रहना हो
जो वफा से
डाल हिलाकर देखो
मैं चला तुम भी चलो
हाथ गैरों से मिलाया

गीतों में-
कह दो किसी और घर जाए
साहिल को अपनाना हो तो
हर दुख पर इतना भर कह ले

अंजुमन में—
अच्छा लगता है
कैद हैं साँसें
छत मैं तुम आँगन
जिंदगी के जश्न
दिन गया
दिल को बहला जाती थी
देखना चाहे इधर
पत्थरों को आइना कैसे कहूँ
पतझड़ को न देना तूल
बड़ी बेजोड़ ये सौग़ात होती
भूख का मतलब
रात सुलाती
रोज खुले मे
वक्त की दरियादिली
वक्त ने दो ग़म दिए

वही सूरत वही साया
वो टहलते वक्त
शोर भारी हो रहा है

कुंडलियों में-
पाँच मौसमी कुंडलियाँ

 

पाँच मौसमी कुण्डलियाँ

आया सूरज आ गई धूप सजा सतरंग,
सूनी रातों में रहे चाँद चाँदनी संग।
चाँद चाँदनी संग मिलीं लहरें सागर से,
मेघ जहाँ मुड़ गए घटा भी गईं उधर से।
वफ़ा न छोड़ी कभी सभी ने साथ निभाया,
केवल मानव ही मानव को छलता आया।

पहचानी-सी धूप थी पहचानी-सी छाँव,
गाँव शहर देखे लगे पड़े जहाँ तक पाँव।
पड़े जहाँ तक पाँव कहीं मन ठहर न पाया,
ओझल हुए पड़ाव सफ़र में लम्बा आया।
रही समय के साथ रात-दिन खींचातानी,
खाली चलता गया नहीं मंज़िल पहचानी।

मन माने की बात है हार समझ या जीत,
जैसे देखा जगत को वैसा हुआ प्रतीत।
वैसा हुआ प्रतीत फूल भी यहीं खिले हैं,
काँटे भी हैं यहीं चुने जो वही मिले हैं।
किस्मत या हालात न कोई दोस्त न दुश्मन,
तेरे सुख-दुख का कारण है तेरा ही मन।

कर जी भर सब का भला सब टूटे दिल जोड़,
औरों के गम बाँट ले अपनी चिन्ता छोड़।
अपनी चिन्ता छोड़ दुखों में भी सुख पा ले,
भला बुरा जो मिले खुशी से तू अपना ले।
इस धरती को खूब सजा ये है तेरा घर,
जीना मरना यहीं जाएगा कहाँ भाग कर।

खुशबू में साँसें रहें साँसों में मधुमास,
मौसम बीतें बीत लें बचा रहे अहसास।
बचा रहे अहसास इसी से तो जीवन है,
सच्ची है अनुभूति और सब पागलपन है।
पचपन बचपन लगे जवाँ हो जोश लहू में,
अगर साथ रह जाएँ जिये जो पल खुशबू में।

५ मई २००८

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