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नई रचनाओं में-
अब इस दयार में
ऐलाने सहर
गनीमत से गुजारा
तमाम ख़ुश्क दयारों को
सच्ची श्रद्धा व सबूरी

अंजुमन में-
गाँवों से चौपाल
दिन निकलता है
न तो शैतान चाहिये
रूप होना चाहिये
हमें एक दूसरे से

गीतों में-
चल चलें एक राह नूतन
छंदों के मतवाले हम
मजबूरी का मोल
यमुना कहे पुकार

संकलन में-
होली है- हुरियार चले बरसाने
वटवृक्ष- बरगद
खिलते हुए पलाश- खिलते हुए पलाश

`

दिन निकलता है

दिन निकलता है तेरे साथ गुलाबों की तरह
शाम ढलती है तेरे साथ चिरागों की तरह

मैंने देखा है ज़माने को तेरी नजरों से
तेरी यादें हैं मेरे दिल में किताबों की तरह

मन की धरती पे खयालों की उगी घास, उस पर
तेरा एहसास लगे शबनमी बूँदों की तरह

तेरी खामोशी कभी लगती है सन्नाटे सी
तो कभी लगती है ये ढोल, नगाडों की तरह

ये तजुर्बा है बड़ा खास, इसे नाम दूँ क्या
मुझको तो लगे है ये बारिश की फुहारों की तरह

१२ दिसंबर २०११

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