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नई रचनाओं में-
अब इस दयार में
ऐलाने सहर
गनीमत से गुजारा
तमाम ख़ुश्क दयारों को
सच्ची श्रद्धा व सबूरी

अंजुमन में-
गाँवों से चौपाल
दिन निकलता है
न तो शैतान चाहिये
रूप होना चाहिये
हमें एक दूसरे से

गीतों में-
चल चलें एक राह नूतन
छंदों के मतवाले हम
मजबूरी का मोल
यमुना कहे पुकार

संकलन में-
होली है- हुरियार चले बरसाने
वटवृक्ष- बरगद
खिलते हुए पलाश- खिलते हुए पलाश

 

मजदूरी का मोल

मजदूरी का मोल
यहाँ अधिक, पर
वहाँ लगे कम
ये कैसा है झोल
ओ भैया ये कैसा है झोल

कस्बों में रिक्शे वाले
पाँवों से रिक्शे हाँक रहे
सर पे तपती धूप
बदन के हर हिस्से से
स्वेद बहे

ढो कर हम को एक मील
दस-बीस रुपल्ली मात्र गहे
गमछे से फिर पौंछ पसीना
मुँह से मीठे बोल कहे

उस पर हम
तन कर उस से
बोलें बस कड़वे बोल
ओ भैया ये कैसा है झोल

शहरों के ऑटो - टेक्सी वालों के
नखरे क्या बोलें
मन में हो तो आवें
मन में ना हो तो - फट ना बोलें

लें समान की अलग मजूरी
जो चाहें जैसा बोलें
उस पर हम डरते डरते
उनको ड्राईवर भैया बोलें

जो माँगें
खामोशी से
दे देते हैं दिल खोल
ओ भैया ये कैसा है झोल

२५ जुलाई २०११

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