अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में नईम की रचनाएं-

गीतों में-
अपने हर अस्वस्थ समय को
क्या कहेंगे लोग
करतूतों जैसे ही
काशी साधे नहीं सध रही
किसकी कुशलक्षेम पूछें
खून का आँसू
पानी उछाल के
प्रार्थना गीत
फिर कब आएंगे
महाकाल के इस प्रवाह में
लगने जैसा
शामिल कभी न हो पाया मैं
हम तुम
हो न सके हम

 

महाकाल के इस प्रवाह में

महाकाल के इस प्रवाह में
यत्नहीन बहते जाना ही -
सचमुच क्या अपना होना है?

वय के बंजर हिस्से में,
देख रहा हूं अपने को मैं -
पीछे जाकर
दो कौड़ी के, माटी के उस -
घड़े सरीखा ठोक, बजाकर
देख रहा हूं

जीवन के इस सार्थवाह में,
लगातार चलते जाना ही
क्या सचमुच अपना होना है?

इनकी, उनकी निगरानी में रहते आये
लगता जैसे सात पुश्त से
बनिक न पाये हाट प्रेम के,
लुटा न पाये मुक्त हस्त से,
रह न सका मैं ख्वाबगाह में

इस प्रवाह में महाकाल में
क्या अपने को दुहराना ही
अंतिम सांसों तक होना है?

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter