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अनुभूति में ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग' की रचनाएँ -

अंजुमन में नयी ग़ज़लें-
अपना-अपना मधुकलश
चाँद बनाकर
जहाँ चलना मना है
धर्मशाला को घर
फूल के अधरों पे
 

गीतों में-
कहाँ पे आ गए हैं हम
जैसे हो, वैसे ही
सात्विक स्वाभिमान है
गीत कविता का हृदय है

 

जहाँ चलना मना है

जहाँ चलना मना है
वही इक रास्ता है
तुम्हें जो पूछता, वो
क्या खुद को जानता है
सुबह कैसी, अभी तो
ये मयखाना खुला है
ये कहना तो ग़लत है
कि हर ग़लती खता है
यहाँ शैतान है जो
कहीं वह देवता है
उधर सोने की खानें
इधर ताज़ी हवा है
न जिसने हार मानी
वही तो जीतता है
झुकाकर सिर जिया जो
वो जीते जी मरा है
'पराग' अब कुछ न कहना
बचा कहने को क्या है!

1 मई 2007

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