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अनुभूति में राम अधीर की रचनाएँ-

नए गीतों में-
आग डूबी रात को
जब मुझे संदेह की कुछ सीढ़िया
जो कलाई पर बँधा है

मैं तो किसी नीम की छाया

गीतों में-
दूरी लगी
नदी से सामना

 

 

 

मैं तो किसी नीम की छाया

मैं तो किसी नीम की छाया बैठ गीत फिर से लिख लूँगा
तुम दीवारों की अनुनय पर, कैसे मिश्री घोल रहे हो।

शब्दों की संपदा लुटाकर
मत समझाओ तुम दानी हो।
जहिर नहीं करो तो क्या है
बादल जैसे अभिमानी हो।

मेरी तपती काया छूकर पहले ही पानी-पानी थे,
अब अभिनव की किस शैली में, खारे आँसू रोल रहे हो।

दुख को अनावृत करने से
वह सचमुच धनवान हुआ है।
जो सुख बिकने को उद्धत है,
वह कल की पहचान हुआ है।

चिंता नहीं अगर ये सपने भाँवर पड़े बिना मर जाएँ
तुम क्यों, इनकी असफलता का भेद अचानक खोल रहे है।

गीत आजकल बड़ी सभा में
जाने तक से घबराते हैं।
बादल इनकी प्यास देखकर
बूँदे तक को तरसाते हैं।

धरती का संबल ही सारी काया को कंचन का देगा,
लेकिन तुम अंबर के कानों में जाने क्या घोल रहे हो।


२९ अगस्त २०११

 

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