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अनुभूति में वेद प्रकाश शर्मा 'वेद' की रचनाएँ-

नए गीतों में-
आँख में नींद नहीं
कुछ तो कहो
डर लग रहा है

मत पूछो क्या किया
लेखनी ने आज

गीतों में-
जयगाथा
विडंबना

  डर लग रहा है

रात गहराई
अभी तक तुम नहीं आए
मन सशंकित
घेरते ही आ रहे साए
बहुत डर लग रहा है!

सुना है कल सड़क
पूरी एक बस को खा गई थी
और परसों लिफ्ट देना ही
बहुत महंगा पड़ा था
लूट का प्रतिरोध करते
यहीं थोड़ी दूर पर तो
भरी-पूरी कली के ही
पेट में खंजर गड़ा था
सरसराहट ने यही
सब हादसे गाए
बहुत डर लग रहा है!

गोलियों से डर नहीं लगता
मगर इन आहटों में
एक अनहोनी
कि जैसे रेंगती घर आ रही हो
जेब में बरसों पुराना
एक परिचय-पत्र रखकर
सभ्य आवारा इरादों को
ये ड्योढ़ी भा रही हो
द्वार-दस्तक ने
यही बस चित्र दिखलाए
बहुत डर लगा रहा है!

बत्तियों की चौकसी में हैं
गली, घर और आँगन
गिद्ध बन परछाइयाँ परिवेश की
पर झाँकती है
थक गई चैनल बदलकर
बात टी.वी. से करूँ क्या
यह ही दिखाते सीरियल
हर ख़बर यह बाँचती है
थरथराते काँपते
दिखते सभी पाए।
बहुत डर लग रहा है!

२ नवंबर २००९

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