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अनुभूति में विष्णु सक्सेना की रचनाएँ-

नए गीतों में-
आँखों में पाले
जब कभी भी हो तुम्हारा मन
रंग है बसंती
स्वार्थ की दुपहरी में

गीतों में-
छोड़ चली क्यों साथ
तृप्त मयूरी हो ना पाई
दुख में सुख की मधुर कल्पना
मन का कोरा दर्पन
हाथ की ये लकीरें
हो सके तो

  तृप्त मयूरी हो ना पाई

तृप्त मयूरी हो ना पाई, प्यासी ही रह गई चातकी,
सत्य छिपाना तुमने सीखा, मेरी आदत खरी बात की।

मैंने वंदनवार सजाए,
क्या तुमको आभास हुआ?
कलियों ने अपमान सहा है,
फूलों का परिहास हुआ।
रात तुम्हारी सदा सुहागन, मेरी चिंता है प्रभात की,
सत्य छिपाना तुमने सीखा, मेरी आदत खरी बात की।

विरह-व्यथा आँसू ने कह दी,
मैंने मन की पीर छिपाई।
केवल था सुधियों में जीवन,
जीवन की सुधि कभी न आई।
ईश्वर से सबने है पाया, मुझ से विधि ने बड़ी घात की,
सत्य छिपाना तुमने सीखा, मेरी आदत खरी बात की

कैसे जन्म सार्थक मानूँ,
जब जीवन में तुम्हीं न आए?
वरदानों से भरे जगत में,
मैंने केवल शाप कमाए।
एक रंज जीवन की निधि है, शतरंजों ने कहाँ मात की।
सत्य छुपाना तुमने सीखा, मेरी आदत खरी बात की।

हम-तुम ऐसे दूर रहे हैं,
जैसे दूर नदी के तट हैं।
कौन भरोसा करे यहाँ पर,
पग-पग पर बिछ रहे कपट हैं।
मन-अशांत की शांत नदी में, कल-कल भाई कब प्रपात की?
सत्य छिपाना तुमने सीखा, मेरी आदत खरी बात की।

१ दिसंबर २००८

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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