अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

आभा खरे

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

  माहिये


मन की जो डोर कसी
ऐसी लगन लगी
छवि उसकी नैन बसी

ओ सपनो के राही
चन्दा से डर क्या
तू छत पे आ माही

सपनों के गाँव गली
लेकर निंदिया को
पलको की नाव चली

सुन ले ओ मूढ़ मना
कण-कण झर जाता
तन माटी का गहना

जग दो दिन का खेला
साँस चले , चलता
सुख दुख का ये मेला

आँखें हैं मधुशाला
घूँट-घूँट पी लूँ
छलके मद का प्याला ..!!

मेरा दिल बेसबरा
तुझमें यूँ डूबा
जो अब तक ना उबरा..!!

रिमझिम यादें बरसी
भीग रहीं अँखियाँ
बिन सावन ये कैसी ...!!

है कितनी बेदर्दी
सब बातें दिल की
इन नैनों ने कह दी ...!!

सुख के गुल ये कहते
जीवन बगिया में
दुख काँटे भी चुभते..!!!

१ नवंबर २०१९

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter