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अनुभूति में सर्वेश शुक्ल की रचनाएँ—

छंदमुक्त में-
आस्था
कहाँ हो तुम
चाँद को न गहूँगा
तुम्हारे लिये
 

 

चाँद को न गहूँगा!

चाँद को न गहूँगा!
क्या कहूँ!
भाग्य ही कुछ ऐसा ऐंठा
कि मैं गलती कर बैठा
कुसुम से नहीं लता से नहीं
चाँद से प्यार कर बैठा
बड़े जतन से सँभाली अपनी
सबसे बहुमूल्य निधि को
चाँदनी में गँवा बैठा
स्वयं पर अभिमान था
अपनी आत्मा का ज्ञान था
प्रेम की शक्ति पर गुमान था
पर
चाँद की अखंड सत्ता
उसकी अपूर्व महिमा का कहाँ भान था!
एक रात
दबे पाँव चाँदनी चाँद का संदेश लेकर आती है
मेरी नवजात खुशियों में सेंध लगाती है
मीठी नींद से जगा मुझे आवाज़ लगाती है
रे अधम!
क्यों बुनता है व्यर्थ सपनों के जाल
कभी आ सका है अंजुली में उदधि विशाल
कभी बही है श्मशान में शीतल मंद बयार
रे मूर्ख!
छोड़ दे यह आस
करती हूँ मैं तेरे प्यार का सम्मान
पर मेरी आभा को चाहिए विस्तार
पर्वत, वन, नदी, झरने, समुद्र नहीं
वरन संपूर्ण सृष्टि
पर एकछत्र साम्राज्य
मेरा वर्यं तो
अनंत, असीम, अमिट
आकाश है
चाँदनी हाँफ रही थी
उसका दम घुट रहा था मेरी कुटिया में
वो अदृश्य हो चली
मेरा अंतर हंसा
जैसे कह रहा हो
मैं गया हूँ ठगा
मैं अपने बिखरे अस्तित्व को समेटता हूँ
मरते जीवन को साँसों से जोड़ता हूँ
अपनी आत्मा के चिकने घड़े को फोड़ता हूँ
मैं प्रण करता हूँ
कि स्वयं का विस्तार करूँगा
पर्वत, वन, नदी, झरने, समुद्र नहीं
वरन संपूर्ण सृष्टि का वरण करूँगा
आकाश बनूँगा
मगर
चाँद को न गहूँगा!
चाँद की एक नन्हीं तस्वीर बनाऊँगा
उसमे अपनी आत्मा का अंश मिलाऊँगा
उसे लोरी गा कर सुलाऊँगा
उसकी विरल चाँदनी को सघन बनाऊँगा
उसकी श्वेत वर्णिमा में नहाऊँगा
अपने अस्तित्व को उसमे गलाऊँगा
अपने जीवन को उसका आधार बनाऊँगा
उस पर अपने प्रेम की रसधार बरसाऊँगा
उसका पिता कहलाऊँगा
मैं स्वंय का विस्तार करूँगा
आकाश बनूँगा
मगर
चाँद को न गहूँगा!

९ अक्तूबर २००५

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