अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में शैलाभ शुभिशाम की रचनाएँ-

तुकांत में-
अर्पण कर लो
इक तू रंग
हार जीत
मैं स्वप्न नहीं तेरा
रिसते हुए रक्त ने
रुकी हुई सी
  रिसते हुए रक्त ने

रिसते हुए रक्त ने पूछा, ये क्या युद्ध की भाषा है,
कटे लाख सर बिन कारण के, पर बढ़ती और पिपासा है,
कहाँ वक्त ने हँसते हँसते, ये हर युग की परिभाषा है,
हर युग में ये होता लेकिन,
ये भी खूब तमाशा है।

इक युग में देखा कालिंगा, इक युग में रामायण देखा,
इक में देखा छत्रपति तो, इक युग में नारायण देखा।
सतयुग आया, देखा अर्जुन, इक एकलव्य भी मैंने देखा,
देखी मैंने मरती साँसें,
लाल द्रव्य भी मैंने देखा।

कहा वक्त ने चुपके से फिर, तू क्यों रोता लहू मगर है,
गर शरीर में दर्द छिपा है, थोड़ी भी सच्चाई अगर है,
आएगा इक दिन ऐसा भी, जब वो खुद में ही रह जाएगा,
फिर सोचेगा क्या पाया उसने, युद्ध की क्या कुछ परिभाषा है?
हर युग में ये होता लेकिन,
ये भी खूब तमाशा है...

९ मार्च २००५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter