अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अमलतास





 

सुआ पंखी से कोमल पत्ते
मृदुल बसंती फूल
जिसमें न तो काँटे
न कहीं धूल।

चिकना भूरा तना
और घना ऐसा
कि मंडप-सा बना।

यह अमलताश
देखने में काफ़ी बड़ा है
मानो आतप से
लड़ने को खड़ा है।

शिरीष के पादप-सा
हरीतिमा से भरपूर
नदी के किनारे
गाँव से कुछ दूर।

अपनी लंबी काली
फलियों से सज्जित
अपने आप में निमग्न है,
किसी वैद्य की भाँति
जन सेवा में संलग्न है।

ये शिरीष और पलाश से
दिखता है भिन्न,
हृदय है विकल
और मन इसका खिन्न।
सोचता है
कहीं कोई मनु का सपूत
फरसा लेकर न आता हो।

जगदीश प्रसाद सारस्वत विकल
16 जून 2007

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter