अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

नहर के तीर वाला बाँसवन
 

फिर बुलाता बाँह फैलाये हुए
वह नहर के
तीर वाला बाँसवन

जब थके अवकाश वाले क्षण मिले
याद से संवाद
करने लग गए
बाँस की हर फाँस के सन्दर्भ भी
दृष्यवत् आकर
स्वयं ही जग गए

एक -दूजे से गले मिलने लगे,
आँधियों में बाँस
जैसे आम जन

बाँस बनकर बाँसुरी का सुर कभी
जब किसी के
हाथ की लाठी बना
साधता है बोझ पीढ़ी का सदा
छान-छप्पर,खाट
काठी ,झुनझुना

गाँव की उस देहरी पर तन रहा
लचककर करता
सभी जन को नमन

सरसराती पत्तियों की नोक से
जब टपकते
ओसकण अमिताभ से
सूर्य किरणों में नहाकर बाँस तब
चमचमाते हैं
किसी रक्ताभ से

बाँसवन की उस नशीली याद में
भीगता मन
चाहता पुनरागमन

- जगदीश पंकज
१८ मई २०१५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter