अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

बाँसवन में गीत गूँजे
 
बाँसुरी अधरों छुई
बंशी बजाना आ गया
बांसवन में गीत गूँजे, राग
अंतस छा गया

चाँदनी झरती वनों में
बाँस से लिपटी रही
लोकधुन के नग्म गाती
बाँसुरी, मन आग्रही

रात्रि की बेला सुहानी
मस्त मौसम भा गया.

गाँठ मन पर थी पड़ी, यह
बांस सा तन खोखला
बाँस की हर बस्तियों, फिर
रच रही थीं श्रृंखला

पॉंव धरती में धँसे
सोना हरा फलता गया .

लुप्त होती जा रही है
बाँस की अनुपम छटा
वन घनेरे हैं नहीं अब
धूप की बिखरी जटा

संतुलन बिगड़ा धरा का,
जेठ,सावन आ गया

- शशि पुरवार 
१८ मई २०१५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter