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बाँस पर औरत झुकी है
 
बाँस पर,
औरत झुकी है
साँस साधे साँस पर।

बाँस की
तासीर, गाँठे, कोशिकाएँ
तौलती है आँख से,
और तब फिर बैठ जाती है
मुलायम तार-रेशे
छीलने को बाँक से।
दुधमुँहा
इस बीच आकर झूलता है
छातियों के डेढ़ मुट्ठी माँस पर।

बाँस का चीरा
कलेजे तक उतरकर
छातियों से बह रहा है।
वंशगत गुर की कहानी
वंशधर से कह रहा है।
टोकनी बुनती हुई
आँखें भरी हैं
दूध पीती दृष्टि
ठहरी फाँस पर।

- श्याम नारायण मिश्र
१८ मई २०१५

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