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दोहे
 

देवदार के देखिए, बड़े नुकीले पात।
पूरी सरदी बर्फ के, सहते हैं आघात।

योगी जैसे हो खड़ा, करे साधना मौन।
देवतरु स्वयं आप हो, देव चाहिए कौन।

ऊँचे पर्वत पर खड़ा, बाँहें रहा पसार।
आतप, बरखा, शीत सब, सहने को तैयार।

देवलोक का वृक्ष ये, हरियाली भरपूर।
लोभ, मोह, या शोक हो, तीनों करता दूर।

हरियाले इस पेड़ से, शोभित पर्वतराज।
ऊँचाई पर जो शहर, सबको इसपर नाज।

पेड़ों में सबसे जुदा, रखता ज्ञान विशेष।
सुखदुख में तुम सम रहो, देता है संदेश।

- धमयंत्र चौहान    
 
१५ मई २०
१६

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