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पर्वत के सिर झंडी
 

गिरि को दाबे अड़ा खड़ा नभ
तन विशाल बहुखंडी।
हवा, फूल, फल, छाँव, बटोरे
पर्वत के सिर झंडी।

बोओ, रोपो, सींचों, पालो
आस किसे है पगले!
स्वाभिमान का पौरुष तन में
पोष-पाल कर रख ले।

आसमान की छतरी ताने
देवदारु की डंडी।

काली, धूसर, पीली साड़ी
रैन, दिवस, और भोर।
अदल-बदल के पहन उतारे
ले जाए ना चोर।

हरी चीर में प्राण बसे
आँचल नीचे पगडण्डी।

रक्खे मान पहाड़ों का
बिहँसे, पल-पल हुलसायँ।
पत्थर -पत्थर बाँध पिरोये
भारत में विलसायँ।

जनम-जनम का देवदारु
घर, औषधि, कागज मंडी।

सागर की सब भाप बटोरे
सैलानी उर-भाव।
दोनों में उदगार उड़ेले
घन बरसे बे-भाव।

शीतल वर्षा की बौछारें
फहराता है ठंडी।

- शीला पांडे  
 
१५ मई २०
१६

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