अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

कचनार की कली





 

कमनीय कान्त सुनम्य कोमल, यह कली कचनार की,
प्रतिमान है कमनीयता, अपितु लघु आकार की,

उपमान भी उपमेय भी, उपमा स्वयम शुभ शांत-सी,
शांत, सौम्य सुनम्यता की, कान्ति निधि नितांत-सी,

गुन्दुभी, गंभीर वर्णा, और गदराई हुई,
लग रहा, उत्कर्ष यौवन की छटा छाई हुई,

नयन-सा आकार, आकर रूप का गरिमा भरा,
मीन के आकार का ज्यों कलश हो मदिरा भरा,

कवियों की सौन्दर्य बोधक, काव्य की कामायिनी
दास काली ग्रन्थ उद्धृत, भाव की सौदामिनी।

औषधी के रूप में भी, क्लेश हरने की कला
मुखर गुणवत्ता करें हम, है कहाँ क्षमता भला।

हर्ष का उत्कर्ष मनहर, ये कली कचनार की
प्रकृति के उपहार-सी, सुख स्रोत हो संसार की।

मृदुल कीर्ति
१६ जून २००८

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter