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टेसू के फूल   

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टेसू के फूल
खिल आये है फ़िर
बबूल के जंगल मे
स्नेह की बरसात न सही
मुक्‍त
सर्द रिश्तों की जकड़न से
बेखबर
बौराये आम, पीले पत्‍तों बीच
वासन्ती बयार से
मुसकराने लगे हैं
खिलखिलाने लगे हैं
स्नेह सुगंध के बिना ही सही

आतंक की गर्मी,
अभी आगे भी आयेगी
आयु की
छोटी सी पगड्ण्डी पर
तपायेगी
चलते चलते
समय के नंगे ..जलते
आधारहीन पांवों को
झुलसायेगी राजनीति की लू से
महत्वाकांक्षाओं की चिलचिलाती धूप में
आम आदमी की तरह

और तब
तुम्हारे स्नेह के अभाव में
उजड़े मंदिर की सीढ़ियों पर
पीपल के सूखे पत्‍तों की खड़ाखड़ाहट
मन के पतझड़ को
पलाश की यही छांव
हरियाली का अहसास दिलायेगी

चला जाऊँगा
शिवलिंग के घट की
वाष्पित बूँदों के सदृश
उम्मीद की हर झिलमिलाहट को
आँखों में लेकर
वियोग के आतंक और..
अन्याय की तपिश से बचाकर
जीवन की डगर पर
और फिर खिल जायेंगे
टेसू के फूल इसी तरह
वासन्ती बयार से
किसी अनाम पगडंडी पर
पुन: गंध विहीन ही सही

-श्रीकान्त मिश्र ’कान्त’
२० जून २०११

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