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बहुत कुछ हम पा गए    
 

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भीड़ में गुम हो गई
अपनी तलाशों से
बहुत कुछ हम पा गए
मिल कर पलाशों से

सुर्ख धधका हुआ चेहरा
रास आया फिर
जूझने का वही जज्बा
पास आया फिर
सध गए हम संधि से
जुड कर समासों से

अनकहा था जो कि
वो भी सामने आया
एक साया बाँह
अपनी थामने आया
बात खुल कर हुई
अपने अनुत्प्रासों से

सुबह आई और
अपनी हो गई फिर से
लहर सी कोई उठी
तालाब में फिर से
खिल गई ताज़ा हवा
गहरी उसासों से

- यश मालवीय
२० जून २०११

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