ठहरो जरा कुछ देर 

 
ठहरो जरा क़ुछ देर
साथ बैठें चाय पीलें

घिर रहे हैं मेघ काले
हवा कुछ शीतल हुई है
भर गई है हृदय में जो
वह तपन पर अनछुई है

बहुत पीछे रह गये जो
उन पलों को पुनः जी लें

जब रुपहली चाँदनी में
कुछ सुनहरे स्वप्न बोये
भूल कर सारे जगत को
सिर्फ थे अपने में खोये

उड़ रहे थे पतंगों से
और हम देते थे ढीलें

रुके हम उस मोड़ पर ही
समय दौड़ा जा रहा
काँपते हैं हाथ हमसे
रथ न मोड़ा जा रहा
गाड़ दीं जैसे किसी ने
फूंक कर कुछ मन्त्र-कीलें

- मधु प्रधान
१ जुलाई २०२०

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