कोरोना ऐसा बढ़ा

 

 

कोरोना ऐसा बढ़ा, संकट में है देश
लोग घरों में बंद है, बदल गया परिवेश

इक जैविक हथियार ने छीना सबका चैन
आँखों से नींदें उडी, भय से कटती रैन

चोर नज़र से देखते, आज पड़ोसी मित्र
दीवारों में कैद हैं, हँसी ठहाके चित्र 

रौनक फीकी पड़ गयी, सड़कें भी सुनसान
दो कौड़ी का अब लगे, सुविधा का सामान

सूरज भी तपने लगा, सड़कें भी सुनसान
परछाई मिलती नहीं, पहरे में दरबान


थमी हुई सी जिंदगी, साँसें भी हलकान
सिमटा सुख का दायरा, रोटी और मकान 

भाग रही थी जिंदगी, समय नहीं था पास
पर्चा बाँटा काल ने, करा दिया अहसास 

बदला बदला वक्त है, बदले हैं प्रतिमान
संकट में जन आज है, कल का नहीं ठिकान 

खोलो मन की खिड़कियां, उसमे भरो उजास
धूप ठुमकती सी लिखे, मत हो हवा उदास 

जाति धर्म को भूल जा, मत कर यहाँ विमर्श
मानवता का धर्म है, अपना भारत वर्ष

जब तक साँसें हैं सधी, करो न मन का ह्रास
तूफां आते हैं सदा, होते सकल प्रयास

प्रकृति बड़ी बलवान है, सूक्ष्म जैव हथियार
मानव के हर दंभ पर, करती तेज प्रहार

जीने को क्या चाहिए, दो वक़्त का आहार
सुख की रोटी दाल में, है जीवन का सार

- शशि पुरवार
१ जून २०२०

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