कैसी भयानक त्रासदी

 

 
कैसी भयानक त्रासदी
सहमी हुई अपनी सदी

संवेदना के सूत्र का
धागा सिमटता जा रहा
आकंठ डूबा है शहर
जाने कहाँ किस ताल में
एकांतवासी बन गए
हैं एक बदले हाल में
अनुपात सब बिगडे हुए
हर सूत्र कटता जा रहा

तन संक्रमित होने लगे
मन भी निरापद है कहाँ
बेबस दिहाड़ी चैन से
ले साँस अब जाकर जहाँ
कैसा जघन्य विषाणु है
सौजन्य घटता जा रहा

एकांत की अवधारणा
कितनी विरूपित हो रही
अब दूरियों में रह विवश
अवसाद के क्षण ढो रही
हर सामुदायिक बोध का
विश्वास बँटता जा रहा

अपनी तबाही को कहीं
हम ही निरंतर बुन रहे
विकसित कहाँ कितने हुए
बस दंभ अपना सुन रहे
अब भी सजग कितने कि जब
संक्रमण हटता जा रहा

जीवित रहे यह सभ्यता
जीवित रहे संवेदना
संवेग मानवता लिये
पाता रहे संचेतना
युग की सघन विकरालता से
मन उचटता जा रहा

कुछ आ रही हैं आहटें
सीमान्त सारे तोड़ कर
आओ बनायें चित्र अब
धागे परस्पर जोड़कर
मिलकर कहें विकसित धरा का
भेद पटता जा रहा

- जगदीश पंकज

१ जून २०२०

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