मातृभाषा के प्रति

 

 

 

 

कल रात स्वप्न में

कल रात मेरे स्वप्न में ...
जा पहुँची मैं कहीं दूर देश में ...
परियों का वो लोक ...
जहाँ था सर्वत्र् आलोक ...
दैदीप्यमान हो रही थी जहाँ बादलों की छटा ...
था ऐसा मनोरम वातावरण वो ‘परिलोक’ का ...
देखते ही उन्हें मुख से अवाक ...
नमस्ते शब्द कह निकला ...
मुझे देख उनके मुख पर भी ...
लालिमा की एक लहर छा गयी थी ...
फिर मुझे प्रत्युत्तर मिला ...
क्या तुम ‘हिन्दी से बने हिन्दुस्तान’ से आयी हो ...
जहाँ ...
प्रेम ओर रस की धारा का जलपान करने ...
देवतागण स्वयं आते हैं ...
जहाँ ...
‘हिन्दी राष्ट्रभाषा’ है और ...
वेद पुराण ... नीति शास्त्र् सर्वत्र् पूज्य हैं ...
जहाँ की ‘लिपि देवनागरी’ में है इतने शोभित वर्ण ...
जिनका मूल्य न तोल सके स्वयं स्वर्ण ...
इतनी शोभित, मधुर वो वर्णमाला है ...
जो अन्यत्र् भी पूज्य है ...
अन्य ‘भाषाओं की हिन्दी है जननी’ ...
ममता तुल्य है तुम्हारी मातृ भाषा ...
जिसने माँ की भाँति ...
दूसरी भाषाओं में भी रस सींच कर उन्हें नवाजा ...
कितनी सौभाग्यवती पुत्री हो तुम ...
जो हिन्द देश में जन्मी ... और ...
हिन्दी का प्रयोग करती हो ...
उनकी बातें सुनकर मुख से निकला ...
डियर परी ...
नमस्ते तुम्हें ... मुख से तुम्हारी सुन्दरता देखकर ...
स्वतः ही निकल पडा ... जो बचपन में दादी से सीखा था ...
किन्तु ...
हिन्दी का इतना प्रयोग ... इतना महत्त्व ...
मुझे ज्ञात न था ...
मैंने अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण की है और ...
उसी वातावरण और भाषा में नींव मजबूत की है ...
वेद-शास्त्र् ... हिन्दुस्तान ...
ये शब्द मैंने पहली बार सुने हैं ...
वरन् ...
अब तक बस इनकी जगह कॉमिक और ...
देश के लिये ‘इंडिया’ ही नाम सुने हैं ...
आयी तो थी मैं यहाँ ...
मेरे रात्र् के स्वप्न में ...
लेकिन तुमने मुझे अवगत कराया ...
मेरे देश के सम्मान और गौरव से ...
प्रकाश की भाँति ये पाठ ...
अब मुझे हमेशा याद रहेगा ...
‘अपनी भाषा और गौरवमयी भारत माता का
इस दिल में सदैव सम्मान रहेगा ।।

-नेहा विजय
९ सितंबर २०१३

 

   

 

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