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 आम लगे बौराने

है कहीं रंगों की होली, ख़ून की होली कहीं है
तेज़ पिचकारी कहीं बन्दूक की गोली कहीं है
.
प्रेम का यह पर्व है पर मिट रहा है रूप इसका
एक मज़हब के लिए गुस्से भरी बोली कहीं है
.
मौज मस्ती सब पे पानी फिर ही जाता है अचानक
नफ़रतों की भाँग जब दिल में कभी घोली कहीं है
.
लाल, पीली और गुलाबी उड़ती रहती थीं गुलालें
अब ज़मीं पर ख़ून से ही बनती रंगोली कहीं है
.
हर तरफ़ महँगाई का ही दौर आया है यहाँ पर
घर चलाने की ही ख़ातिर दूर हमजोली कहीं है
.
पहले हुड़दंगों का रेला घूमता था हर नगर में
गश्त देती फ़ौजियों की अब 'शरद' टोली कहीं है
.
- शरद तैलंग 
१ मार्च २०१९

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