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 रंग कम हैं

फिर चलें, रस-रंग से परिचय बढ़ाएँ
बढ़ रही बदरंगियत ही, रंग कम हैं

व्यंग्य से भी कुछ अधर के कोण फैलें
हास में परिहास का छींटा लगाएँ
देह क्या, मन तक पसर जाए ख़ुमारी
फिर किसी दिन भाँग का लोटा चढ़ाएँ

जेब हो यदि तंग तो परवाह क्यों हो
हाथ ये उल्लास के जब तंग कम हैं

स्वाद बदलें जीभ का, कुछ ज़िंदगी का
रोज़ फिर रस के बढ़े आसार ढूँढ़ें
ज़िंदगी की एकरसता तोड़ दें जो
वे पुराने या नए त्यौहार ढूँढ़ें

स्वप्न बोने में मगर कुछ हर्ज़ भी क्या
यों नए बदलाव के भी ढंग कम हैं

गाल, माथा, वक्ष, काले केश ही हों
रंग से पर हो न तन के अंग खाली
सभ्यताओं को कहीं धर आएँ जाकर
एक दिन कोई हमें समझे मवाली

ढोलकों पर थाप भी थोड़ी बढ़ा दें
जो मचे हैं अब तलक, हुड़दंग कम हैं

फिर दबाएँ पान की कोई गिलौरी
कत्थई हँसियाँ हँसें कुछ देर को तो
यों न उच्छृंखल बहुत होना भला है
तोड़ दें मरजाद वाले घेर को तो

और ज़्यादा, और ज़्यादा फिर उँड़ेलें
ढंग से भीगे अभी ये अंग कम हैं

- पंकज परिमल
१ मार्च २०१९

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