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कामना के थाल

आ गया फागुन सजाकर
कामना के थाल

चपल नयनों ने लुटाया
फिर नया अनुराग
चाह की नव-कोंपलों से
खिल उठा मन-बाग़

इंद्रधनुषी आवरण में
मुग्ध हैं दिक्पाल

धरा के हर पोर को
छूने लगी मधु गंध
शिथिलता के पक्ष में हैं
लाज के अनुबंध

बाँधते आकर्षणों में ये
प्रकृति के जाल

पोटली में बांधकर
नव- कल्पना का धन
प्रेम की पगडंडियों पर
दौड़ता है मन

बाँटता है स्वप्न सुन्दर
यह बसंती काल

- त्रिलोक सिंह ठकुरेला
१ मार्च २०२०

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