होली
है
!!

 

फागुनी हवा


फागुनी हो गई है हवा
दहक गए हैं आज पलाश
ऋतु आई है मिलन की
है अब पिया की तलाश
बसंती हो गए हैं सपने
देह हो गई है रक्ताभ
दो चंचल नयना बिसुर रहे
उनकी सोच कर अपने आप
आकर तुम मुझे रंग दो
प्रेम का गहन अंकन दो
भिगो दो आँचल चोली
पिया खेलो ऐसी होली

मन मंदिर में तुम्हें बिठाया
अपना अक्स तुममें समाया
खो गई मैं तुम्हारे रंग में
उतारे ये रंग उतर न पाया
काँप रही है भीगी देह
माँग रही है तुम्हारा नेह
चुटकी भर सिंदूर लगा कर
ले जाओ तुम मेरी डोली
पिया खेलो ऐसी होली

आलोक अग्रावत

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter