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ज्योति पर्व
संकलन

 

आज फिर से


 

आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ

है कहाँ वह आग जो मुझको जलाए,
है कहाँ वह ज्वाल मेरे पास आए,

रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ,
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।

तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,

आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ,
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।

मैं तपोमय ज्योति की, पर, प्यास मुझको,
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,

स्नेह की दो बूँद भी तो तुम गिराओ,
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।

कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूँगा,
कल प्रलय की आँधियों से मैं लडूँगा,

किंतु मुझको आज आँचल से बचाओ,
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।

- डॉ. हरिवंशराय बच्चन  

  

यादों के दीप

हम-तुम चाहे नहीं मिलें पर
मिलते हैं यादों के दीप,
एक उमर से एक उमर तक
जलते हैं यादों के दीप।

अंधी बस्ती में माटी के
दीप जलें तो किस क्षण तक?
उजियाला देकर अपने को
छलते हैं यादों के दीप।

कितनी दूर चलेंगे सपने,
हर दूरी की सीमा है?
पाँव जहाँ पर थक जाते हैं,
चलते हैं यादों के दीप।

मन टूटे तो देह बिखरती,
कब जलतीं बुझ कर सांसें?
जीवन के उद्यानों में पर
खिलते हैं यादों के दीप।

घर तो है दीवारें भी हैं,
दीवारों के द्वार कहाँ?
कमरे-कमरे, खिड़की-खिड़की,
पलते हैं यादों के दीप।

हम जिसको दुनिया कहते हैं
माया है या मृगतृष्णा,
रूप उभरकर जहाँ सँवरते,
ढलते हैं यादों के दीप

- डॉ. तारादत्त निर्विरोध

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