अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

छलिया
     

 





 

 


 




 


कल रात मनवीथिका में टहलते
पीछे से किसी ने ढाँप लीं आँखें
मुश्कें कस दीं पीताम्बर से
और पीठ पर अड़ाकर वंशिका
कहा,स्वर को भरसक सख्त करके:
लाओ-दो,जो कुछ है तुम्हारे पास,चुपचाप!

रे छलिये, चोर कहीं का!
पहले जब साँवरिया सेठ का रचकर स्वाँग
तूने रखा था तुला पर एक ओर मेरा सर्वस्व
अपने मोरपंख के बदले
बिक तो मैं तभी गया था
अब, बचा है एक नग आँसू
ले, इसे भी ले ले!!

उन हथेलियों की कस्तूरीगंध
आँखों को महकाकर
समा गयी है पोर-पोर
और, मैं नाच रहा हूँ
ख़ुशबू से सराबोर!

- विकासानंद
१८ अगस्त २०१४

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter