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        आए साल नवल

 

पूरब वाले दर से आना
नई छटा बिखराते छाना
हम उम्मीदों भर जागे हैं!!

अबतक चर्चा उगे खार की
भिंची मुट्ठियों उठे ज्वार की…
निर्जल घाट व्यथा गुहराएँ
'नदिया लाना बहे धार की!
अच्छे दिन अब
देखें आँखें
हाथ छुड़ा सपने भागे हैं
हम उम्मीदों भर जागे हैं!!

बहुत हुआ जो रात घनी है
कुहा-ठंड में खूब बनी है
उलझी-सी आँखों में अबतक
बिखरी-बिखरी बर्फ कनी है
तार-तार है अपनी लोई
सधे हाथ से
आ, सुलझाओ !
देखो ना उलझे धागे हैं!
हम उम्मीदों भर जागे हैं!!

- सौरभ पांडे
१ जनवरी २०२१

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